बचपन में जाड़े के महीनों में स्कूल
जाते वक्त हड्डियाँ जमाने वाली ठंड में, ऊन के दस्ताने उतार कर, नाली के किनारे निष्ठुर
प्रकृति की मार खाये कुकुआँते पिल्लों को हाथ में उठा कर सीने से लगा लेना। ये वो ऊन
के दस्ताने थे जो दीदी के पुराने स्वेटर का पुनर्जन्म था। मुझे आज तक यह समझ में नहीं
आया था कि मम्मी ने इन दस्तानों को सफेद रंग का क्यों बनाया था। हालांकि उस वक़्त मुझे
बिल्कुल भी ध्यान न था कि यदि ये गंदे होकर घर पहुंचे तो मम्मी से पिटाई के कई अन्य
कारणों में शामिल हो जाते। मेरी अक्ल का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दस्ताने
उतार कर बाक़ायदा बगल में खड़ी चाउमीन के अब काम न लाये जाने वाले ठेले पर रख दिये जाते
थे और फिर शेरू को उठाया जाता था। बात उस समय की है जब स्कूल के बस्ते का भार मेरे
वज़न का एक तिहाई हुआ करता था।
ऐसी नन्ही उम्र में जब खुद का भी
ख्याल न रहता होगा, ये जाने कौन से अहसास होगा, जिसने इतनी महीन कुंकुआहट की तरफ ध्यान
खींचा और उन दो बड़ी-बड़ी पानी से लबालब आँखों का आग्रह, मैं स्कूल देर से पहुंचने के
डर के बावजूद भी न ठुकरा सका। चितकबरा रंग, काली आँखे, माथे पर एक सफेद टीका। मुझे
अच्छी तरह याद है मैं उसे खिलौना समझ कर आगे नहीं बढ़ा था। मुझे मालूम था कि इसमें प्राण
है और कहीं न कहीं इसमें भी कुछ ऐसा है जो मेरे अंदर भी है- वो खिंचाव, वो सम्मोहन,
वो अदभुत अपनापन, वो मासूम सा रिश्ता जिसकी उम्र चंद मिनटों की थी।
क्या वो मेरा पहला प्यार था?
गुलाबी रुई के फाहों जैसी हवा मिठाई।
हमारे शहर में ऐसा माना जाता था कि ये मिठाई बंबई से आई है और कान्वेंट स्कूल जाने
वाले, इंग्लिश बोलने वाले बच्चे इसे खाते है। इसलिए नाम बम्बई मिठाई पड़ गया था। एक
लंबे डंडे के ऊपरी भाग में बहुत सारे मिठाई की डांडिया खुंसी होती थी और उसके नीचे
घुंघरुओं की तीन लड़ियाँ। मिठाई वाले भैय्या जब चलते समय लंबे डग भरते तो घुंगरू कदमों
की गति के साथ ताल मिला लेते।
झुन-झुन-झुन-झुन..झुन-झुन…झुन-झुन-झुन।।
वो संगीत कर्णप्रिय नहीं था लेकिन
मेरे लिए पहला मौका था जब मैंने समझा कि कुछ ध्वनियां ऐसी भी हो सकती है जो रोज़ सुनने
का मन करे और सुनते ही मानो तुम सब कुछ भूल जाओ और आँखों के सामने बम्बई मिठाई के गुलाबी
बादल तैरने लगे। जब मैंने पहली बार इस झुन-झुन को सुना था तब मैं हैरानी के साथ कुछ
दूर तक खोमचे वाले के पीछे-पीछे दौड़ता चला गया था। एक अजीब सी बेकरारी थी उस आवाज़ में,
एक अजीब सा सूनापन, एक अजीब सी चहक, एक अजीब सा साम्य, एक अजीब सा ठहराव, एक अजीब सा
अल्हड़पन और एक अजीब सा मैं ! वो रुक कर बच्चों के झुंड में एक-एक करके सबको मिठाई की
डंडी पकड़ा रहा था। और मैं एक टक उन घुँघरुओं को निहारता रह गया था।
मंत्रमुग्ध सा मैं खड़ा। आसपास की
सारी चीज़ धीरे-धीरे अस्पष्ट होने लगी और सारी आवाज़ मंद पड़ गयी । अभी तो घुँघरू हिल
भी नहीं रहे थे पर ये झुन-झुन क्यों नहीं रुक रहा? फिर आहिस्ते से एक बड़ा सा हाथ मेरी
तरफ एक बम्बई मिठाई की डंडी से साथ आता हुआ दिखा और मैं वापस होश में आया। मेरे पास
पैसे नहीं थे न मिठाई खाने की इच्छा। पलट कर मैं भाग गया। फिर रोज़ स्कूल के बाद मुझे
उस आवाज़ का इंतज़ार रहता था। ऐसा इंतेजार जो में किसी और के साझा भी नहीं कर सकता था।
ठीक उसी बेकरारी की तरह जो उस झुन-झुन में थी। सच कहूं तो आज भी कभी-कभी दिल में एक
हुक सी उठती है; आज भी उस आवाज़ का इंतेज़ार रहता है। मैं सोंचता हूँ कभी-कभी, क्या वो
मेरा पहला प्यार था ?
चौथी कक्षा में बदमाशी करने वाले
लड़को की सबसे शर्मनाक सज़ा थी कि उसको पीछे से उठा कर फर्स्ट बेंच पर बिठा दिया जाता
था। शर्मनाक इस वजह से क्योंकि वहां क्लास की मेधावी लड़कियाँ बैठती थीं। बता नही सकता
क्यों पर लड़को के समूह में उस समय लड़कियों के साथ उठना-बैठना निंदनीय माना जाता था।
मैं अमूमन सबके साथ शराफत से पेश
आता था। लेकिन जब बात मोर के पंख की हो और वो भी उस पंख की जिसको पूरी तीसरी कक्षा
रोज चाक खिलाया हो, और कोई उस पर हाथ लगा दे तो बर्दाश्त के बाहर। मैंने न नुकर की
तो मेरे तात्कालिक अप्रिय मित्र ने मेरे बाल खींच लिए। मैंने बचाव में हाथ झटके, बाल
छूट गए, लेकिन उसकी कमीज़ की पॉकेट फट कर लटक गयी। और ये शूरवीर योद्धा जो थोड़ी देर
पहले मेरे से गुत्तमगुथा हो रहे थे, बुक्का फाड़ के रोने लगे। एन. पंडित मिस की क्लास
में ऐसी गुस्ताख़ी। मुझे गुस्से से बुलाकर उन्होंने फर्स्ट बेंच पर बिठा दिया।
मैं सारा सामान उठा कर आगे आ गया।
चार लाइनों वाली कॉपी में इंग्लिश हैंडराइटिंग की क्लास चल रही थी। सारा खेल सफाई का
था। आज तो मैं क्लास वर्क में बिल्कुल भी गलती नहीं कर सकता। पहले ही इतनी बेइज़्जती
हो चुकी है। ज़रा सी भी चूक हुई तो हाथ पर बेंत पड़ेंगे। मैंने तिरछी नज़रो से पास बैठी
लड़की को देखा और वापस लिखने लगा- सधे हाथों से धीरे-धीरे। पर राउंड लगाती मिस बगल से
गुज़री तो हाथ काँपने लगे। टी की लकीर लंबी खींच गयी।
मिस ने तो देखा नही लेकिन मेरे
पसीने छूट गए। आसपास रबर खोजने लगा। पर शायद पीछे ही छोड़ आया था मैं रबर। मिस एक एक
करके बायीं तरफ से कापियां चेक करने लगी। और जैसे जैसे मेरी बारी करीब आती जाती मेरा
ख़ून सूखता जाता। अब सिर्फ तीन लोग बचे थे मेरी बायीं ओर। अचानक मुझे लगा कि बेंच के
नीचे से मेरे बायें हाथ को किसी ने छुआ। देखा तो मेरी बगल में बैठी लड़की मेरी तरफ कनखी
से देख रही थी और नीचे हाथों की तरफ इशारा कर रही थी।
मैंने नीचे देखा तो उसने मुट्ठी
खोलकर रबर मेरी हाथ में रख दिया। फटाफट गलती को मिटाया गया। मिस ने कॉपी चेक की और
बस हूँ कहकर आगे बढ़ गयी। मैं ईमानदारी से कहूंगा उस वक़्त पहली बार दिमाग में एक चीज़
आयी। लड़कियाँ भी अच्छी होती है। वो क्षणिक अधिकार जो उस अनजान हम उम्र परी जैसी लड़की
का मेरे ऊपर था जिसने मेरी तब, बिना पूछे मदद की थी जब मैं अपने प्रिय मित्र से लड़
के आया था।
वो मासूम चेहरा, गोल-गोल आँखे,
छोटी सी नाक, होंठो पे खुश्की, दायीं आँख का काजल थोड़ा बाहर निकलता हुआ और लाल रिबन
से बंधी दो चोटियाँ। पीछे खिड़की से आती मीठी धूप में बालों के रेशे जो काले होने के
बाद भी भूरे दिख रहे थे। और उसकी शर्ट पे चिपकी हल्की गुलाबी चेक प्रिंट वाली आलपिन
से लगी नाक पोछने वाला रुमाल। जिसपे सुवापंखी धागे से लिखा था सोनी कुमारी।
क्या वो मेरा पहला प्यार था ?
Author:
Rajeev Kumar, Assistant Professor, School of Communication Design, Unitedworld Institute of Design (UID)
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