जब घड़ी नही थी तब लोग आते-जाते मौसमों से समय का हिसाब रखते थे। समयांतराल बड़ा हुआ करता था। लोग सालों, महीनों और हफ़्तों की अवधि में बात किया करते थे। अक्सर सुना है बुज़ुर्गों को कहते हुए की उम्र के फलाना बसंत में फलाना चीज़ें हुई।
रोज़मर्रा की जरूरतें पूरी करते-करते हम मौसम का आना-जाना ही अनदेखा कर देते हैं। आज अचानक ऑफिस की खिड़की, जो कि चौथी मंजिल पर है, से बाहर झांक कर देखा तो पता चला कि इस बार भी बसंत फिर दबे पांव आकर चला गया। पिछली बार जब खिड़की के बाहर इस पीपल के पेड़ पर नज़र गयी थी तो इसमें पुराने पत्ते थे। कब ये झड़े, कब नए कोंपलों का सृजन हुआ और कब मटमैले अधसूखे पुराने पत्तों के कंबल को उतार कर इसने चटख हरे पारभासी परिधान को पहना, पता ही नही चला।
मैं ऐसे शहर से हूँ जहां पेड़-पौधों के बीच घर हुआ करते थे। प्रकृति बस किसी तरह तंग गालियों, सड़कों के डिवाइडर और परित्यक्त मकानों के बीच सांस लेने की कोशिश में फँसी हुई लगती है। ऊँची इमारतों के झरोखों और बालकनी से बाहर झाँकते पौधे खुद को कितना दीन-हीन समझते होंगे। यह शहर आपको अपनी रगों में लहू की तरह ऐसे मिला लेता है कि आप अपना वजूद ही भूल बैठते है। इस समझौते की आहट तब महसूस होती है जब हादसे में घायल इसके ज़ख्मों से लोग रिसते दिखते है। ऐसे हालत में इंसानो को फुरसत ही कहाँ कि नज़र भर गुज़रते मौसमों पर ही डाल लें।
Author:
Rajeev Kumar, Assistant Professor, School of Communication Design, Unitedworld Institute of Design (UID)
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