ज़हन में
उठती चिंगारियों को हवा देती एक आवाज़ सोने नहीं दे रही आज। यूं सपनो में जाने कौन सी
खोंच पड़ गयी है। हर बार नींद वही उसी मुकाम पे उचट जाती है। इस खामोशी में पंखे की
कराह। मानो कोई हमदम बीमार पड़ा हो जिससे मैं उकता गयी हूँ। हरे रंग का जीरो वाट का
नाईट बल्ब दरवाजे वाली दीवार के कोने में सुगबुगा रहा है। इलेक्ट्रिक बोर्ड के नीचे
मेज और उस पर रखी अन्य वस्तुओं की पड़छायी प्रकाश की तीव्रता के साथ कभी स्याह कभी काली
होती हुई कमरे को संजीदा बना रहे है। एक बार नींद खुल जाए तो कितनी भी कोशिश करो आंख
नही लगती। गला सूख रहा है। एक हाथ बिस्तर से नीचे लटकाकर पानी की बोतल टटोलने लगी।
पानी का
एक घूँट लेकर बोतल नीचे रख दिया। कभी-कभी समझ नही आता कि इतनी सारी बातें क्यों चलती
रहती है दिमाग में। लगता है डर को काल्पनिक भीड़ के शोरगुल में दफन करने की साजिश चलती
है इसके अंदर। सब कहते है इतना सोंचती क्यों हो। मैं सोंचती हूँ इनको पता कैसे चल जाता
है। क्या मेरे चेहरे पे लिखा होता है। क्या मैं चाहती हूँ कि उनको पता चले कि मैं सोंच
रही हूँ। हाह… फिर वही। हमेशा की तरह मेरी सोच का अंतहीन वलयों पर चक्कर काटना। सोना
जरूरी है। कल फिर ऑफिस में दिन भर का कार्यक्रम है। दो दिवसीय वार्षिक “टैलेंट हंट”
समारोह का दूसरा दिन।
“अनुराग
किशोर”, लोगों को अक्सर कहते सुना था कि भाई दो नाम एक साथ क्यों। कॉलेज के पहले दिन
मुलाकात हुई थी। करीब एक दशक बीत गया पर अब भी सब कुछ साफ-साफ याद है। बिल्कुल भी अंदाज़
न था कि कैंटीन में बैठने की जगह को लेकर हुई नगण्य सी तकरार कितना गंभीर रुख अख्तियार
कर सकती है। किशोर थर्ड ईयर में था जब मैंने कॉलेज जॉइन किया था। ये वो ज़माना था जब
भारत में लोगो ने नया-नया रैगिंग शब्द सुना था। और कॉलेज का प्रशासन इसको इतनी गम्भीरता
से नही लेता था। सीनियर-जूनियर की नोक-झोंक तो आम बात थी उन दिनों।
मेरी बारहवीं
तक कि पढ़ाई दिल्ली के प्रतिष्ठित कॉन्वेंट स्कूल से हुई थी। अकड़ विरासत में साथ लायी
थी। फैशन डिज़ाइनर बनना था तो मुम्बई आ गयी और कॉलेज में दाखिला ले लिया। घरवालों ने
भी कोई आपत्ति न जताई बल्कि हर तरह से सहर्ष योगदान ही दिया हमेशा।
मैं लंच
काउंटर से अपनी थाली वापस लेकर आते हुए बैठने की जगह तलाश रही थी। एक कोने वाली बेंच
खाली थी। वहीं जाकर बैठ गयी। सृस्टि भी दिल्ली से ही थी। पहली क्लास में जान पहचान
हो गयी। तीन घंटे की पहचान, अनजान जगह में हम दोनों को साथ कैंटीन तक पहुंचा गयी थी।
दिल्ली सुनते ही एक अजीब सी आत्मीयता का अनुभव हुआ था। यह प्रथम अवसर था जब मैं घर
से दूर किसी दूसरे शहर में अकेली खुद के लिए ज़िम्मेदार थी। सृस्टि मेरे सामने बैठी
थी। दाहिनी बगल वाली स्टूल पर मेरा बैग रख था और उसके सामने की जगह खाली थी।
“बैग उधर
रख लीजिए।” मैंने पलट कर देखा तो थाली हाथ में पकड़े हुए एक लड़का पुराना सा एयर बैग
बाएं कंधे में लटकाए हुए सामने वाली दीवाल पर लगी टीवी की ओर देख रहा था। मैं,ज्यादा
ध्यान न देकर, वापस खाने में लग गयी। पुनः ज्यादा तीव्र आवाज़ आयी। “बैग उधर रख लीजिए”।
मैंने बिना पलटे कहा “उधर जगह खाली है।” उसने अपनी थाली टेबल पर रखते हुए गर्दन से
टीवी की तरफ इशारा करते हुए कहा “मुझे मैच देखना है”। मैं बैग उठाकर सृस्टि को पकड़ाने
लगी तो वो बगल में बैठ गया।
करीब
5 मिनट की चुप्पी। जिसमे वो एकटक टीवी को देखे जा रहा था और हम चुपचाप कौर पे कौर निगलते
रहे। उसने कहा “क्रिकेट नहीं देखती हो”। मैंने एक बार उसकी तरफ देखा, वो अब भी टीवी
से नजरें चिपकाए हुए था। मैं वापस सिर झुका खाने लगी और कहा “नहीं”। मुझे अब पता है
उस “नहीं” में सख्ती नहीं थी लेकिन फिर भी दिल्ली की नरमी भी छोटे शहरों में रहने वाले
सरकारी स्कूल में पढ़े इंशान के लिए काफी सख्त होती है। मुझे उस समय इसका अंदाज़ा न था।
“फर्स्ट ईयर ?” फिर मेरी तरफ देखते हुए पूछा उसने। मैं तब तक खाना खा चुकी थी। उठकर
प्लेट हाथ लेकर बिन में रखने के लिए जाते हुए कहा “यस”। दो मिनट के अंदर मेरे कहे दो
शब्द “नहीं” और “यस” के बीच दिल्ली और बिहार की दूरी थी जो मैंने 10 मिनट में उसके
पहनावे और बातचीत के लहजे से जान लिया था।
कॉलेज
शुरू हो गया और धीरे-धीरे वक़्त बीतता गया। दूसरे सेमेस्टर में आने की खुशी और गत कुछ
महीनों के अनुभवों में एक वाक्या ज़हन पे हल्की सी खरोंच मार गया था। ऐसी खरोंच जो समय
के साथ गहरी होती गयी काफी दिनों तक। फिर वक़्त के रंगों के मोटे आवरण ने भर दिया उस
निशान को। कैंटीन से शुरू हुई कहानी डायरेक्टर के चैम्बर तक पहुंचकर दूसरे सेमेस्टर
में जाके खत्म हुई। किशोर को कॉलेज से निलंबित कर दिया गया।
पिछले
सात महीनों में, बॉलीवुड में दिए गए लड़की पटाने के लगभग सारे पैतरे आज़मा लिए थे अनुराग
ने मुझपे। और मैं इतना चिढ़ गयी थी कि उसको देखकर खून खौलता था। आप नाराज़ उसी से होते
है जिनसे उम्मीद होती है। पता नहीं क्या उम्मीद थी मेरी उस से। खेल-कूद और कुछ चुनिंदा
विषयों में उसकी सानी न थी लेकिन एक अजीब सा अल्लहड़पन था जो कभी कभी मेरी मापदंडों
के धरातल पे फूहड़ जान पड़ता। शायद यही एक संसोधन चाहिए था मुझे उसमे, तो शायद कुछ एक
बॉलीवुड के नुस्खे सफल भी हो सकते थे। कौन जानता है।
खैर जो
न होना था न हुआ। न चाहते हुए भी कई बार आमना-सामना हो जाता था। वीकेंड्स पे अक्सर
कुछ दोस्तों के साथ उसका ग्रुप भी मिल जाता था। कॉलेज की उम्र ऐसी होती है जब कभी-कभी
अपनी बेवकूफी साबित करना भी समझदारी लगती है। मित्रों का संधिन्य प्राप्त करने और विपरीत
लिंग के ध्यान को आकर्षित करने के लिए क्या-क्या नहीं करना पड़ता है। वैसे किसी की हिम्मत
नही हुई थी। अब तक मेरी रैगिंग का दुःसाहस करने वालो को हमेशा मुँह की खानी पड़ी थी।
लेकिन धीरे-धीरे मेरे भीतर का चैलेंजर सुस्त पड़ता जा रहा था। मैंने भी कॉलेज की “सो
कॉल्ड” पार्टियों में आना-जाना शुरू कर दिया था। एक ऐसी ही पार्टी में वो आया था और
नई जवानी के मूर्खतापूर्ण खेलों का बादशाह “ट्रुथ एंड डेयर” में हम दोनों का सामना
हो गया। मुझे और सृस्टि को 10 बजे तक हॉस्टल वापस जाना था तो खेल को बीच में छोड़कर
हम निकल गए। खेल आगे बढ़ता गया और इसका पता मुझे बहुत बाद में चला था कि उसी रात किशोर
को एक डेयर दिया गया था। कुछ हफ्ते बीत गए। मेरे जाने के बाद क्या हुआ उस रात, इससे
मैं बिल्कुल अनभिज्ञ थी।
सेमेस्टर
समाप्ति अवकाश के बाद सृस्टि अबतक वापस नहीं आयी थी। रूम में सिर्फ मैं अकेली थी। होस्टल
के कमरों की, सड़क की तरफ वाली बालकनी आपस में जुड़ी थी। अक्सर पड़ोसी कमरे वाले दरवाजे
की जगह इसी का प्रयोग करते। अभीे आधा घंटा भी नही हुआ था आंख लगे और खिड़की की तरफ से
धीमी खटखटाहट की आवाज़ से मेरी नींद खुल गयी। मैं थोड़ी देर तक इसे अनसुनी कर करवटे बदलती
रही पर फिर चिढ़ते हुए अनमनी सी उठ कर खिड़की की तरफ बढ़ चली। बाहर सड़क पर से स्ट्रीट
लाइट का प्रकाश कमरे में खिड़की से आता था। इसलिए पर्दे लगाकर सोना पड़ता था। मैं सोच
रही थी कि जाने कौन आया है इतने रात को।
मैंने
पर्दे की छोड़ को दोनों हाँथो से पकड़ झिटकते हुए हटाया। और मेरी चींख बगल वाले कमरे
से आती हुई गाने की हल्की आवाज़ को मात देती गूंज उठी। मुझे बिल्कुल अहसास नहीं था कि
मैं कितना तेज़ चिल्ला रही थी। आदमकद खिड़की के बाहर कपड़े का मुखौटा पहने कोई बिल्कुल
सीसे से लगकर खड़ा था और दायीं हाथ से दस्तक दे रहा था। पीछे स्ट्रीट लाइट का प्रकाश
भी स्पेशल इफेक्ट्स का काम कर रही थी। मेरे तीन-चार, एक के बाद एक, भयावह चिंखों के
बीच उसने मुखौटा उतारा और मेरी ओर देखकर कुछ कहने की कोशिश करने लगा। उंगली मुँह पर
रख मुझे चुप रहने का इशारा करने लगा। खिड़की बंद होने की वजह से मुझे कुछ सुनाई नही
दे रहा था। फिर कुछ देर बाद मैं सामान्य हुई जब उस शख्स का चेहरा जाना पहचाना लगा और
जैकेट पे ध्यान गया। ये किशोर यहां कैसे पहुंचा।
मैं जब
तक निर्णय ले रही थी कि खिड़की खोलूँ या नहीं तब-तक वो पलटा और रेलिंग फांद कर नीचे
उतरने लगा। मैंने खिड़की खोल कर आगे देखने की कोशिश की। हमारा कमरा दूसरे माले पे था।
जब तक मियां मजनूं नीचे पहुंचते, गार्ड भैया आ गए और जनाब पकड़े गए। पहचान पत्र से उनकी
पहचान हो गयी और दूसरे दिन हम दोनों की पेशी डायरेक्टर केबिन में पांच अन्य अध्यापकों
की मौजूदगी में ली गयी। फैसला होने में 10 मिनट का भी समय नही लगा। “अनुराग किशोर विल
हैव टू रिपीट द सेमेस्टर”।
पता नही
मैं गुस्से में थी, या घबरा गई थी लेकिन असमंजश की अवस्था में मैंने उस दिन हर एक बात
साफ-साफ अपने अनुसार बिना यह सोंचे बता दी कि मेरी बातों का अपराधी की सजा निर्धारण
में क्या भूमिका हो सकती है।
उसने कई
बार मुझसे अलग-अलग तरह से अपने प्यार का इजहार करने की कोशिश की थी। और एक से ज्यादा
अवसरों पे मैंने बड़ी बेरुखी से प्रस्ताव ठुकरा दिए थे। फिर भी वो आशातीत नज़रो से मुझे
देखता और जब मैं उसकी तरफ देखती तो वो झेंप जाता। शक्लों-सूरत के नजरिये से ठीक-ठाक
पर शारीरिक सौष्ठव और लंबाई के दृश्टिकोण से उत्कृट तो नहीं पर उम्दा जरूर कहा जा सकता
था इन्हें। लेकिन पहनने ओढ़ने का कोई सलीका नहीं। एक जैकेट जो अक्टूबर के अंत से पहनना
शुरू किया तो वो फरवरी की शुरुआत तक इनकी शोभा बढ़ाती रहती।
वक़्त बीतता
गया और ये वाक्या पीछे छूट गया। पर पता नहीं क्यों एक हुक सी रह गयी थी। मैं न चाहने
के बाद भी अक्सर सोंचा करती की अगर उस दिन कुछ और होता। कोई और होता, या वो मसलिन का
मुखौटा नहीं होता, मैं चींखती नहीं, गार्ड उसको पकड़ नहीं पाता। और पता नहीं क्या-क्या
उल-जुलूल चलता रहता दिमाग में। पता नहीं क्यों मैं उसको अगले वर्ष कॉलेज में फिर से
देखने के लिए उत्सुक थी।मैंने जो किया और कहा उसके लिए मुझे कतई भी अफसोस न था लेकिन
फिर भी पता नहीं…।
एक साल
बीत गया। किशोर ने कॉलेज वापस जॉइन नहीं किया। इस बीच उसकी कोई खबर नहीं थी। उसके साथ
के मित्रों का समाचार भी अटकलों से ज्यादा न थी। कोई कहता अब वो देहरादून मामाजी के
साथ रहता है और बिज़नेस देखता है। कोई कहता उसने कोई और कॉलेज जॉइन कर लिया है। तो कोई
कुछ और। और वैसे भी मैंने ज्यादा जानने की कोशिश नहीं की कभी। समय बीतता गया और मैं
कॉलेज खत्म करके वापस दिल्ली शिफ्ट हो गयी। नौकरी के सिलसिले में एक-दो शहरों में रही।
फिर अभी पिछले महीने बंगलोर की एक एक्सपोर्ट हाउस में नौकरी का सुअवसर मिला तो यहां
साजो-सामान सहित पदार्पण किया। घर ढूंढने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई । यहां कॉलेज
के समय के काफी मित्र थे। ये अलग बात थी कि सिर्फ गिने-चुने लोगो के साथ संपर्क रह
गया था। एक तीन माले की निजी बिल्डिंग में बतौर पेइंग गेस्ट ठिकाना तय हो गया था।
अभी तक
सब ठीक चल रहा था। पर “टैलेंट हंट” के पहले दिन मुझे हॉल में “अनुराग किशोर” दिखाई
दे गया। उसके गले में भी मेरी ही कंपनी की आइडेंटिटी कार्ड लटक रहा था। उसने मुझे अब
तक नहीं देखा था शायद। या हो सकता है देखा हो और पहचान न पाया हो। समय भी तो काफी बीत
गया। अब बदन ढलान की ओर लुढ़क चला था 28 साल की उम्र और कॉर्पोरेट जगत की घिसाई। मैं
काफी समय तक नज़रे बचाती रही। फिर मुझसे ही न रहा गया। लंच बुफे की कतार में करीब जाकर
मैंने उसकी तरफ देखकर कहा। “अनुराग किशोर ?” उसने मेरी तरफ देखा और अचंभित होते हुए
कहा “रोशनी अग्रवाल ?” ! हम दोनों मुश्कुरा रहे थे और वही लाइन में खड़े-खड़े हम बात
करने लगे। बातों के दौरान पता चला कि उसने 4 साल बाद डिग्री उसी कॉलेज के बंगलोर वाले
सेंटर से पूरी कर ली। इस बीच वो फ्रीलांसिंग करता रहा और पिछले एक साल से इसी एक्सपोर्ट
हाउस में काम करता है। अभी छोटी बहन की शादी ले सिलसिले में 15 दिन की छुट्टी ले रखी
थी जो बढ़कर 25 दिन हो गए। कल ही पुनः जॉइन किया है।
मुझे अजीब
लग रहा था। पता नही क्यों, उसका तो पता नहीं पर मैं उस हादसे का जिक्र इस बातचीत में
कतई लाना नहीं चाहती थी। पर सच तो यह है कि उसको देखकर दिमाग में सबसे पहली बात यही
आयी थी। उसने कैरियर संबधी कुछ प्रश्न पूछे और मेरे सामान्य उत्तरों पर हम्म..हम्म…करता
रहा। मैं अपना प्लेट भर कर, वापस आकर एक स्टूल पे बैठ गयी। और ध्यान फेरने की कोशिश
करने लगी। फ़ोन निकाल कर मैं फेसबुक स्क्रॉल करने लगी। आंखे फ़ोन पे थी पर दिमाग न जाने
कहाँ था। एक अजीब बेबसी और असमंजस। मैं बड़ी कोशिश करके दिमाग को वर्तमान में खींच रही
थी लेकिन मन समय की उल्टी दिशा में उड़ता चला जा रहा था। सारी चीज़ें याद आ रही थी। घटनाये…
दुर्घटनाएं… हाह।
अचानक
एक आवाज़ ने ध्यान भंग किया।
“क्या
आप बैग दुसरी तरफ रख सकती है ?” मैंने नज़रे उठायी। और जैसे सारी दुनिया तेज़ी से घूम
कर वापस दस साल पीछे चली गयी हो। बगल में किशोर खड़ा था हाथ में प्लेट लिए और मेरी तरफ
देख रहा था। मैं कुछ सोंच नहीं पा रही थी। अपने आप शब्द निकल पड़े “उधर वाली स्टूल खाली
है”। उसने मुझे गर्दन हिलाकर खाली दीवाल को दिखाते हुए कहा “मुझे मैच देखना है”। और
फिर हम दोनों जोड़ से हँसने लगे।
किशोर
– तुम्हें पता है। बगल वाली स्टूल पर बैठते हुए। मेरे पास आज तक वो मसलिन का मुखौटा
रखा है। थोड़ी देर रुककर कुछ सोंचते हुए… क्या बेवकूफी थी! हँसते हुए। तुम बहुत ज्यादा
डर गयी थी। “आई एम एक्सट्रेमली सॉरी फ़ॉर माई स्टुपिडिटी”। मुझे आशा है कि तुमने मुझे
अब तक माफ कर दिया होगा।
रोशनी
– “ईट्स आल राइट”। मुझे मीटिंग में चुप रहना चाहिए था। क्या पता वो कोई छोटी-मोटी पनिशमेंट
देकर छोड़ देते। और बताओ क्या चल रहा है? शादी-वादी की या अभी भी लड़की की तलाश जारी
है।
किशोर
– जिसे देखो यही बात। घरवाले तो जान के पीछे पड़े है। जल्दी कर लो। जल्दी कर लो। कर
लूंगा जल्द सोंच रहा हूँ। फिलहाल तो ऐसा कुछ है नहीं। तुम अपना बताओ?
रोशनी
– कैरियर बनाने में समय कब निकल गया, पता ही नहीं चला। घरवाले बोलते है अब, आजकल ज़रा
ज्यादा जोर डालकर। बाकी सब बढ़िया है। तो यहां अपने क्लास वाले तो होंगे? मिलते हो उनसे?
किशोर
– नहीं कॉलेज छूटने के बाद कभी शायद ही किसी से बात हुई है। सृस्टि कहां है आजकल? तुम्हारी
तो बातचीत होती होगी।
रोशनी
– काफी दिन हो गए। उसकी तो दो साल बाद ही शादी हो गयी थी और वो पति के साथ कनाडा शिफ्ट
हो गयी। फिर बातें कम हो गयी। फेसबुक पे पता चलता रहता है बस।
मुस्कुराते
हुए…तुम्हारी हरकतें तो अब भी नहीं बदली लगती है। जो मेरी जगह यहां कोई और बैठी होती,
तो फिर भी इसी स्टूल पे बैठे होते क्यों ?
उसने कुछ
कहा नहीं बस मुस्कुराते हुए एक बार देखा और प्लेट की तरफ देखने लगा। लंच खत्म करके
दोनों ने एक दूसरे से मिलते रहने की बात कही और अपने-अपने रास्ते चले गए। करीब सवा
छः बजे मैं ऑफिस से घर के लिए निकली। वापस आते समय ऑटो में जाने क्या-क्या खयाल आ रहे
थे। कुछ तो था दिलोदिमाग में जो लबालब भर गया था। रिस रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा
था क्यों। घर पहुंच कर थोड़ी देर टीवी देखा फिर बिना डिनर किये ही सोने चली गयी।
पर लाख
कोशिश के बाद भी नींद नहीं आ रही। रह-रह के आंख खुल जाती। मैं जागती आंखों से सपने
देखना भूल चुकी थी दुनिया की भाग दौड़ में। पर आज मज़बूरन दृस्टि पटल से समीप इतिहास
और वर्त्तमान के ताने-बानो की बुनावट चल रही थी। मुझे इससे बने कपड़े की कोई तम्मना
नहीं थी ये मुझे पता था। लेकिन ये निर्माण क्रिया बड़ा सन्तुष्ट कर रही थी। दूसरी बार
पानी पीने के लिए उठी। तो बोतल टटोलते समय लगा जैसे खिड़की पे दस्तक हुई। जान हलक में
आ गयी। वैसे भी यही आवाज़ सपने में कब से ठक-ठक कर रही थी। फिर मैंने पानी पिया और लेटने
लगी।
फिर दस्तक
की आवाज़ आयी। इस बार मेरा ध्यान खिड़की की ओर गया और मैं सतर्क हो गयी। बता नहीं सकती,
क्या चल रहा था दिमाग में। बस अंदेशा था कि अगर ऐसा न हुआ जैसा मैं सोंच रही हूँ तो
क्या? और साथ ही ये भी सोंच रही थी कि ऐसा सोंच क्यों रही हूँ। उठ कर खिड़की की तरफ
सधे कदमों से बढ़ी और पर्दे को दोनों हाँथो से झटके से अलग किया।
सामने
वक़्त पलट कर खड़ा था। बिल्कुल वही जो दस साल पहले हुआ था। वही मसलिन का मुखौटा और वही
पुरानी जैकेट पहने हाथ शीशे पे रख वो मेरी तरफ देख रहा था। मैं इस बार भी बड़ी जोड़ से
चिल्लाई पर इस बार आवाज़ बाहर न आई। बस होंठो पे हल्की सी मुस्कुराहट फैल गयी। और मन
ही मन मैंने बुदबुदाया “तुम नहीं सुधरोगे कभी”।
एक चींख को हँसी में बदलने में दस साल लग गए। मैं उसे
देख कुछ देर मुस्कुराती रही। फिर उसने मुखौटा उतार वही रख दिया और पलटकर रेलिंग फांद
कर चला गया। मैंने खिड़की खोल कर बालकनी से नीचे देखा तो वो इशारे से कह रहा था कल मिलते
है। मैंने भी हाथ हिलाकर हामी भर दी और मुखौटे को उठाकर वापस अंदर आ गयी।
अदना सामाजिक प्राणी’ राजीव कुमार, सहायक प्रोफेसर, स्कूल ऑफ़ कम्युनिकेशन डिज़ाइन, यु आई डी।
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